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क्वा꣢३꣱स्य꣡ वृ꣢ष꣣भो꣡ युवा꣢꣯ तुवि꣣ग्री꣢वो꣣ अ꣡ना꣢नतः । ब्र꣣ह्मा꣡ कस्तꣳ स꣢꣯पर्यति ॥१४२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

क्वा३स्य वृषभो युवा तुविग्रीवो अनानतः । ब्रह्मा कस्तꣳ सपर्यति ॥१४२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क्व꣢꣯ । स्यः । वृ꣣षभः꣢ । यु꣡वा꣢꣯ । तु꣣विग्री꣡वः꣢ । तु꣣वि । ग्री꣡वः꣢꣯ । अ꣡ना꣢꣯नतः । अन् । आ꣣नतः । ब्रह्मा꣢ । कः । तम् । स꣣पर्यति ॥१४२॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 142 | (कौथोम) 2 » 1 » 5 » 8 | (रानायाणीय) 2 » 3 » 8


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा के विषय में प्रश्न उठाया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(क्व) कहाँ है (स्यः) वह (वृषभः) आनन्द की वर्षा करनेवाला, (युवा) नित्य युवा, अर्थात् युवक के समान सदा शक्तिशाली, (तुविग्रीवः) अतिशय रूप से प्रलयकाल में जगत् को निगलनेवाला अर्थात् प्रकृति में लय करनेवाला और बहुत उपदेश देनेवाला, (अनानतः) शत्रु के संमुख कभी न झुकनेवाला, इन्द्र परमेश्वर? (कः) कौन सा (ब्रह्मा) विद्या-वृद्ध जन (तम्) पूर्वोक्त विशेषताओं से युक्त उस इन्द्र परमेश्वर को (सपर्यति) पूजता है? ॥८॥

भावार्थभाषाः -

तुम कहते हो कि ब्रह्माण्ड का कोई शासक है, जो बादल के समान सबके ऊपर सुख बरसाता है जो न कभी बालक होता है, न कभी बूढ़ा, किन्तु सदा युवा ही रहता है, जो मानो हजार ग्रीवाओंवाला होकर प्रलयकाल में सब पदार्थों को निगलता है और सृष्टिकाल में सहस्रों जनों को ज्ञान का उपदेश करता है, जो कभी शत्रुओं के सम्मुख झुकता नहीं, अपितु उन्हें ही झुका लेता है। हम पूछते हैं कि वह कहाँ है? यदि है, तो दिखाओ। तुम कहते हो कि वह पूजनीय है। हम पूछते हैं कि भला कौन विद्वान् है जो उस निराकार, अशरीरी, अदृश्य, अश्रव्य की पूजा कर सके? इसलिए वह है ही नहीं, न ही कोई उसकी पूजा कर सकता है, यह प्रश्नकर्ता का अभिप्राय है ॥८॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मविषये प्रश्नः क्रियते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(क्व) कुत्र वर्तते (स्यः) स (वृषभः) आनन्दवर्षकः (युवा) नित्यतरुणः, तरुणवत् सदाशक्तिसम्पन्नः, (तुविग्रीवः) बहुग्रीवः, अत्यर्थं प्रलयकाले जगन्निगरणशीलः बहूपदेष्टा च। तुवि बहुनाम। निघं० ३।१। ग्रीवा गिरतेर्वा गृणातेर्वा गृह्णातेर्वा। निरु० २।२८। गॄ निगरणे तुदादिः, गॄ शब्दे क्र्यादिः। (अनानतः) शत्रोः पुरतः कदापि अनवनतः इन्द्राख्यः परमेश्वरः ? (कः) कतमः (ब्रह्मा) विद्यावृद्धः। ब्रह्मा परिवृढः श्रुततः। निरु० १।७। बृहि वृद्धौ, मनिन्। (तम्) पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टम् इन्द्रं परमेश्वरं (सपर्यति) पूजयति ? ॥८॥

भावार्थभाषाः -

युष्माभिरुच्यते यदस्ति कश्चिद् ब्रह्माण्डशासको यः पर्जन्यवत् सर्वेषामुपरि सुखं वर्षति, यो न कदाचिद् बालो न चापि वृद्धः, किन्तु सदा तरुण एव, यः सहस्रग्रीवो भूत्वा प्रलयकाले सर्वान् पदार्थान् निगिरति, सृष्टिकाले च सहस्रशो जनान् ज्ञानमुपदिशति, यः शत्रूणां पुरतो न कदाचिन्नमति, प्रत्युत तानेव नमयति। वयं पृच्छामः क्वास्ति सः ? अस्ति चेद् दर्शयत। युष्माभिरुच्यते स पूजनीय इति। वयं पृच्छामः कोऽस्ति विद्वान् यो निराकारं निःशरीरं अदृश्यम् अश्रव्यं तं पूजयितुं शक्नुयादिति ? अतो नास्त्यसौ न च तत्पूजकः कश्चिदिति प्रश्नकर्तुरभिप्रायः ॥८॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।६४।७।